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nandini's avatar

Lovely piece. Reminded me of a poem by Gulzar Saab,

कभी ख़ुदा ने बिछाई थी एक बिसात मेरे लिए,

सादे-सफ़ेद घरों में चालें सियाह रख दीं।

मैं मोहरा था या खिलाड़ी — कुछ समझ नहीं आया,

हर क़दम पे उसकी उँगली थी, मेरी नहीं।

राजा भी चला मैं, और प्यादा भी,

पर हर बार मात मिलती रही — चुपचाप।

फिर एक दिन मैंने बिसात ही पलट दी,

मोहरों को हटा कर, ज़मीन पर चलने लगा।

अब कोई चाल नहीं चलता मुझ पर,

और नसीब हैरान है — कि ये ग़ुलामी कब टूटी।

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Manasvini Yogi's avatar

Lovely writeup. God bless

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